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Mridual

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Monday, October 20, 2014

हम तो चौपालिये हो गये

जैसे एक शराबी मयख़ाने में सकूँ पाता है एक लेखक चौपाल या बैठक में, जहाँ उसके जैसे सुनने सुनाने वाले मिलें। पिछली बार, जब पहली बार चौपाल में पहुँचे, तब से हम तो चौपालिये हो गये। आज किसी ने पूछा कि समन्दर का किनारा छोड़ कर इतनी दूर धूल फाँकने क्यों आ जाते हो? अरे इसी नशे के कारण। एक विचित्र जीव होता है लेखक जो अपनी ही दुनिया में रहता है। ठीक उस शराबी की तरह.। अपनी ही तरह के लोग… बच्चों जैसे। शब्दों से खेलने वाले, कुछ अपने आप से बातें करने वाले पागल, किसी रूह को यार कहने वाले… बड़े अजीब होते हैं यह लोग। पिछली दफ़ा पाँच घण्टे कैसे बीते पता ही नहीं चला।  कुछ लोगो ने कहा, "अब तक की सबसे बढ़िया चौपाल थी" और हमारी पहली। क्या इत्तिफ़ाक़ है न। आज दूसरी बार फिर से मज़ा आ गया . संस्मरणों की चौपाल में कुछ ने गुदगुदाया और कुछ ने तह दर तह जा कर पुरानी यादों को कुरेद कर रख दिया.  किसी की रेल यात्रा थी और कोयला मेरी आँखों में चला गय।,  पगली मैं बहुत रोई.

फिर एक व्यंग्यकार ने इतना हँसाया कि शिकायतें दूर हो गयी. एकाद्शी के पावन दिन पर जीवन की कई सच्चाइयों का पता चला। चौपाल में जा कर अपने ही जैसे लोगों से मिल कर महसूस होता है मुझ जैसी मैं ही नहीं मुझसे बरसों पहले इस दुनिया में आये हुए लोग भी है। यही एहसास मेरी रूह को सकूँ देता है…

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